
दोस्ती या सियासत??
दुनिया की सियासत में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ तस्वीरों और बयानों में नजर आते हैं, मगर असल में उनके
पीछे बहुत कुछ होता है। ऐसा ही एक रिश्ता है अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प और इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का। ये रिश्ता क्या वाकई दोस्ती है या बस एक सियासी सौदा?

जब ट्रम्प पहली बार 2016 में राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने जो सबसे पहला इंटरनेशनल नेता खुले तौर पर गले लगाया, वो था नेतन्याहू। ट्रम्प ने हर मंच पर कहा — “कोई भी इंसान मुझसे बड़ा इज़राइल का दोस्त नहीं है।” और नेतन्याहू ने भी इसे अपनाया। उन्होंने कहा, “ट्रम्प ने जो हमारे लिए किया, वो कोई नहीं कर सका।”

अब देखिए, ट्रम्प ने क्या किया? सबसे पहले येरुशलम को इज़राइल की राजधानी मान लिया। अमेरिका का दूतावास तेल अवीव से येरुशलम ले गए, जबकि पूरी दुनिया इस फैसले से नाराज़ थी। फिर अब्राहम समझौते कराए, जिसमें यूएई, बहरीन जैसे अरब देशों ने इज़राइल को मान्यता दी — और ये सब ट्रम्प के वक्त हुआ। तो जाहिर है, नेतन्याहू की नज़रों में ट्रम्प सिर्फ़ एक दोस्त नहीं — बल्कि एक ऐतिहासिक साथी बन गया।
अब बात आती है हाल की — 2025 की। जब ईरान और इज़राइल आमने-सामने आ गए। मिसाइलें उड़ रही थीं, धमाके हो रहे थे। उस वक़्त ट्रम्प ने खुलकर इज़राइल का साथ दिया। बोले, “हम इज़राइल के साथ हैं — बिना किसी शर्त के।” अमेरिका से हथियार, तकनीक, डिप्लोमैटिक कवच — सब कुछ इज़राइल को मिल रहा था। नेतन्याहू भी समझते थे कि ट्रम्प का ये साथ बहुत वक़्ती नहीं, बल्कि रणनीतिक है।

लेकिन यहां एक सवाल खड़ा होता है — क्या ये दोस्ती दिल से थी? या दोनों एक-दूसरे को इस्तेमाल कर रहे थे? देखिए, नेतन्याहू को ट्रम्प से बहुत कुछ मिला — दुनिया के मंच पर खुला सपोर्ट, अमेरिका की ताक़त, और ईरान के खिलाफ खुली छूट। और ट्रम्प को? उन्हें अमेरिका के यहूदी वोटर्स का सपोर्ट मिला, ईवैंजेलिकल क्रिश्चियनों की ताकत मिली, और सबसे बड़ा — ‘प्रो-इज़राइल’ इमेज मिली, जो अमेरिकी सियासत में बहुत मायने रखती है।
अब सुनिए असली मोड़ कहाँ आया। 2020 के बाद, जब ट्रम्प चुनाव हार गए, और जो बाइडन राष्ट्रपति बने, तो नेतन्याहू ने सबसे पहले बाइडन को बधाई दी। ट्रम्प को ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा — “Bibi ने मुझे धोखा दिया।” यानी ट्रम्प को ये दोस्ती भी एक सियासी सौदा ही लगी, जिसमें वक़्त के साथ सब बदल जाता है।
तो इसका मतलब ये हुआ कि ये दोस्ती कुछ शर्तों पर बनी थी। दोनों को एक-दूसरे से फायदा चाहिए था। नेतन्याहू को अमेरिका का साथ, और ट्रम्प को सियासी फायदा। जैसे एक सौदा — आप मेरे लिए बोलिए, मैं आपके लिए खड़ा हूं।
2025 की जंग में ये रिश्ता फिर सामने आया। ट्रम्प फिर बोले, “हम इज़राइल के साथ हैं।” और नेतन्याहू ने भी इस साथ को फिर से मजबूत किया। लेकिन फिर वही सवाल — क्या ये साथ उस दोस्ती का हिस्सा है, जो दिल से है? या ये वही सियासत है, जो मौके पर सब कुछ बदल देती है?
सच तो ये है कि दोनों बहुत चालाक नेता हैं। दोनों जानते हैं कि दोस्ती सिर्फ़ भावनाओं से नहीं चलती, खासकर जब मुल्कों की बात हो। यहां हर रिश्ता फायदे पर टिका होता है।
बहुत से एक्सपर्ट्स कहते हैं कि नेतन्याहू ट्रम्प के साथ इतने खुले इसलिए थे क्योंकि ट्रम्प उन्हें सब कुछ बिना सवाल दिए दे रहे थे। कोई दबाव नहीं, कोई शर्त नहीं — बस सपोर्ट। और ट्रम्प को नेतन्याहू का सपोर्ट इसलिए चाहिए था ताकि उन्हें अमेरिका में वो वोट मिले, वो इमेज बने।
एक दिलचस्प बात ये भी है कि नेतन्याहू ट्रम्प को “इतिहास का दोस्त” कहते हैं। मगर उसी नेतन्याहू ने ट्रम्प की हार के बाद सबसे पहले बाइडन से हाथ मिलाया। तो रिश्तों की हकीकत वहीं साफ़ हो जाती है।
अंत में बात ये है — ट्रम्प और नेतन्याहू की दोस्ती ने दुनिया में बहुत कुछ बदला। इज़राइल को अरब देशों से मान्यता दिलाई, अमेरिका की नीतियों को मिडिल ईस्ट की तरफ मोड़ा, और जंग के माहौल में भी एक साथ खड़े रहे। मगर ये रिश्ता उतना सीधा नहीं है जितना दिखता है।
क्योंकि राजनीति में दोस्ती कम, जरूरतें ज्यादा होती हैं। और जैसे ही ज़रूरत खत्म होती है, दोस्ती भी पीछे रह जाती है। ये रिश्ता शायद वक्त की मांग था — और वक्त के साथ बदल भी सकता है।
अब आप ही सोचिए — ये रिश्ता वाकई दिल से था? या सिर्फ़ एक शतरंज का मूव?