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क्या इसराइल के ख़िलाफ़ एकजुट होंगे इस्लामिक देश।  

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क्या इसराइल के ख़िलाफ़ एकजुट होंगे इस्लामिक देश।  

Iran Israel War:फ़रवरी 1974 में पाकिस्तान के लाहौर में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी के दूसरे समिट का आयोजन हुआ था.

इस समिट में सऊदी अरब के तत्कालीन किंग फ़ैसल बिन अब्दुल-अज़ीज़ अल साऊद भी मौजूद थे.

समिट को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो ने कहा था, ”हम एक ग़रीब मुल्क हैं. हमारे पास सीमित संसाधन हैं. हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि इकनॉमिक इंस्टिट्यूशन बनाने में योगदान दें. हम आर्थिक योगदान उस रूप में नहीं दे पाएंगे. लेकिन अल्लाह को साक्षी मान आप सबको आश्वस्त करता हूँ कि हम इस्लाम के लिए ख़ून का हर क़तरा देने से बाज नहीं आएंगे. यह कोई ज़ुबानी आश्वासन नहीं है. पाकिस्तान के लोग अल्लाह के सैनिक हैं और पाकिस्तान के सैनिक भी अल्लाह के सैनिक हैं. भविष्य में जब कोई इस तरह का टकराव होगा, पाकिस्तानी मदद के लिए खड़े रहेंगे.”

यह प्रतिद्वंद्विता सुन्नी बनाम शिया से लेकर सऊदी अरब की राजशाही बनाम ईरान की इस्लामिक क्रांति भी रही है. अज़रबैजान शिया बहुल मुस्लिम देश है लेकिन उसकी क़रीबी इसराइल से है जबकि शिया बहुल ईरान से तनातनी रहती है.इराक़ पर जब अमेरिका ने हमला किया और सद्दाम हुसैन की फांसी सुनिश्चित कराई तब ईरान अमेरिका के ख़िलाफ़ नहीं था.जिस साल ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई, उसी साल मिस्र ने इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता देते हुए राजनयिक संबंध कायम करने का फ़ैसला किया था. जॉर्डन ने भी 1994 में इसराइल को मान्यता दे दी थी.2020 में तो यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम कर लिए थे. तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था.

यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे. इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाक़ात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को बल्कि पूरी दुनिया को ख़तरा है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस्लामिक देश इसराइल के ख़िलाफ़ सारे मतभेद और विरोधाभास भूल जाएंगे?

”हर अरब देश में अमेरिका की फ़ौज मौजूद है. पूरे गल्फ़ में 70 हज़ार अमेरिकी सैनिक हैं. इनके पास एक्स्ट्रा टेरिटोरियल राइट हैं. यानी इन पर वहाँ के नियम-क़ानून लागू नहीं होते हैं. अमेरिका के इन देशों में सैन्य ठिकाने हैं और इनके पास पूरा अधिकार है कि इसे कैसे हैंडल करें. इसमें कोई अरब देश अमेरिका को रोक नहीं सकता है. ज़ाहिर है कि इसराइल का ड्रोन जॉर्डन से होकर ही आ रहा है. जॉर्डन की ये ज़िम्मेदारी थी कि इन ड्रोन्स को रोकें. कई ड्रोन तो जॉर्डन में ही गिर जाते हैं. तेल अवीव और तेहरान में 2000 किलोमीटर की दूरी है लेकिन लड़ाई ड्रोन से हो रही है.” ”ईरान और सऊदी अरब में रंजिश की मुख्य वजह शिया बनाम सुन्नी नहीं थी. जियोपॉलिटिकल कारण ज़्यादा अहम थे. क़तर में अमेरिका का एयर बेस है और इसराइल इस एयर बेस का इस्तेमाल करेगा तो उसे कोई रोक नहीं पाएगा. क़तर इस हालत में है भी नहीं. चीन की पहल पर ईरान और सऊदी अरब में दूरी कम हुई है लेकिन इस इलाक़े में ईरान का डर अभी कम नहीं हुआ है.”

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