Lucknow: कला, साहित्य, भित्तिचित्र, शिलालेख, मूर्तियां, भग्नावशेष, शवाधान, आभूषण, बीज, यंत्र और अन्य पुरातात्विक महत्व की सभी वस्तुओं को हम धरोहर कहेंगे। इन्हीं से हम अपने प्राचीन इतिहास का अवलोकन एवं मूल्यांकन करते हैं। मूल्यांकन के उपरांत हम इतिहास लिखते हैं। इसी क्रम में हम सभी कलाओं को धरोहर मानकर नृत्यकला, संगीतकला एवं गायनकला की परंपरा की प्राचीनता निर्धारित करते हैं। कला, ललितकला, चित्रकला, भित्तिचित्र, मृदाकला, काष्ठशिल्प इत्यादि कलाओं को कलात्मक परिवेश में रखते हैं।
पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त अवशेषों से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि सिंधु सभ्यता में नृत्य कला, संगीत, गायन एवं वादन की अनेक विधाओं को विकसित कर लिया गया था। यह भी संभव है कि सिंधु सभ्यता समाज से पूर्व ही ये तीनों कलाएं अस्तित्व में आ गई हैं और सिंधु सभ्यता में इन्हें पूर्णरूपेण विकसित किया गया है। वस्तुत: प्राचीन काल में मनोरंजन के प्रमुख साधनों में नृत्य और संगीत अत्यंत प्रमुख रहे। मनोरंजन के अन्य प्रमुख साधनों में नृत्य अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा सकता है। हड़प्पा से नृत्यांगना की खंडित मूर्ति इस ओर संकेत करती है कि तत्कालीन समाज में नृत्य लोकप्रिय और विकसित कला रही होगी। नृत्यांगना की एक ही मूर्ति का मिलना इस ओर भी संकेत करता है कि तत्कालीन समय में जब पहली बार राजा के सम्मुख नृत्य कला का प्रदर्शन किया गया होगा तो उसके उपरांत नृत्यांगना को विशेष रूप से सम्मानित करने के उद्देश्य से राजमूर्तिकार से नृत्य करती युवती की मूर्ति का निर्माण करवाया गया होगा। इसके बाद एक विशेष आयोजन में नृत्य करती मूर्ति प्रथम नृत्यांगना को प्रदान कर सम्मानित किया गया होगा। यह भी संभव है कि मूर्तिकार को नृत्यांगना से प्रेम हो गया है और उसने नृत्यांगना की एक भाव–भंगिमा को मूर्ति के रूप में ढाल दिया है। मूर्ति निर्माण के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अतः इतिहास सभी संभावनाओं को खोजता है। इसके अतिरिक्त भी अन्य प्रसंग हो सकते हैं।
यहां यह भी विचारणीय विषय है कि क्या सिंधु सभ्यता में नृत्यांगना की मूर्ति सजावट की वस्तु नहीं थी? संभवतः नृत्य प्रतिमाएं सजावट की वस्तु नहीं थी। यदि ऐसा होता तो आभूषण, वर्तन, औजार, रत्न आदि की तरह नृत्यांगना की अनेक मूर्तियां भी प्राप्त होंती। यह सब तथ्य इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि सिंधु सभ्यता में नृत्य कला विकसित हो गई थी। नृत्य के साथ–साथ कम–से–कम गायन और वाद्ययंत्रों को भी विकसित कर लिया गया था क्योंकि नृत्य बिना गीत, संगीत और वाद्ययंत्रों के संभव नहीं है।
आंचलिक आदिवासियों में एकता, सौहार्द, प्रेम, समानता, मनोरंजन और अपनी अलग पहचान प्रदान करने में लोकनृत्यों की भूमि सदैव ही महत्त्वपूर्ण रही है। लोकनृत्य बंधनमुक्त होते हैं। इसमें नृत्य नियम आदि नहीं हैं। यही कारण है कि लोकनृत्यों में सरलता, संवेदना, सहकारिता, स्फूर्ति, रंगवैभव तथा शक्ति के संगम के दर्शन होते हैं।
इस बार डायमंड बुक्स आपके समक्ष लेकर आया है डॉ- संदीप शर्मा की पुस्तक फ्शास्त्रीय नृत्य सांस्कृतिक धरोहरय्। अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य यह है हमारे देश में नृत्य कला का शुभारंभ दक्षिण भारत से हुआ है। जबकि सभ्यता का विकास हिमालय से हुआ। देवभूमि हिमालय को माना जाता है। दक्षिण भारत में महर्षि अगस्त्य के आगमन के उपरांत ही वहां आर्य सभ्यता का विकास हुआ। सभ्य समाज का गठन हुआ। शिक्षा का विस्तार हुआ। जीवन शैली बदली। विचार बदले और बदल गई दक्षिण भारत की दुनिया।
दक्षिण भारत में तमिलनाडु ने भरतनाट्यम और केरल राज्य ने कथकली एवं मोहिनीअट्टम शास्त्रीय नृत्य को विकसित किया। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश में कुचिपुड़ी नृत्य, ओडिशा में ओडिसी नृत्य, मणिपुर में मणिपुरी नृत्य, असम में सत्रिया या सत्त्रिया नृत्य एवं सत्रिया नृत्य और उत्तर प्रदेश में कत्थक नृत्य विभिन्न काल–खंड़ों में विकसित हुआ। यही कारण है कि आज हमें दो प्रकार के नृत्य देखने को मिलते हैं– लोकनृत्य और शास्त्रीय नृत्य। दोनों ही नृत्य विधाओं में गीत, संगीत और वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
नृतः केवल नृत्य है। जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं। यही आज–कल का ऐरोबिक नृत्य है। नृत्य में भाव–दर्शन की प्रधानता है। जिस में नृत्य का प्रदर्शन करने वाले मुख, पद, हस्त मुद्राओं का प्रयोग कर भिन्न–भिन्न भाव–भंगिमाओं का प्रदर्शन करता है। नाट्य में वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है। सृष्टि के कल्याण और व्यवस्थित संचालन के लिए परमपिता परमेश्वर द्वारा सृष्टि के प्रारंभ से ही दिए गए ज्ञान के भंडार को वेद कहा जाता है।
नृत्य धरोहर को भी माना जाना चाहिए। निश्चित रूप से शास्त्रीय नृत्य कालांतर में विकसित हुआ लेकिन उससे पहले लोकनृत्य परिपक्व अवस्था में मिलता है। मैंने पहले लिखा है कि धरोहर केवल पुरातात्विक इमारतों, प्राचीन साहित्य और अन्य कलाकृतियां ही नहीं होतीं अपितु कुछ धरोहर सदैव गतिशील होती हैं। इसके अन्य उदाहरण भी हैं किन्तु हम विषय विस्तार में न जाते हुए केवल नृत्य कला की बात करेंगे।